मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग

रचना: फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
स्वर: नूरजहाँ

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग

मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़्शाँ है हयात
तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है (2)
तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये
यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये
और भी दुःख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
(दरख़्शाँ == रोशन, हयात == ज़िन्दगी, ग़म-ए-दहर == दुनिया भर के ग़म, आलम == दुनिया, सबात == स्थिरता, निगूँ == झुकना, फ़क़त == सिर्फ, वस्ल == मुलाकात)

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग

अनगिनत सदियों के तारीक बहीमाना तलिस्म
रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाये हुये
जा-ब-जा बिकते हुये कूचा-ओ-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुये ख़ून में नहलाये हुये
जिस्म निकले हुये अमराज़ के तन्नूरों से
पीप बहती हुई गलते हुये नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे
और भी दुःख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
(तारीक == अंधेरा, बहीमाना == डरावना, तलिस्म == जादू, अतलस == साटन का कपड़ा, कमख़्वाब == जरीदार वस्त्र, जा-ब-जा == जगह-जगह, अमराज़ == घाव, तन्नूर == भट्ठी)

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग

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